इसके लिए पहले हमें समझना होगा कि तिब्बत की निर्वासित सरकार और संसद जिसे आमतौर पर केंद्रीय तिब्बती प्रशासन कहते हैं, भारत से ही अपना काम कर रही है. इसके पीछे लंबा इतिहास है. साल 1959 में तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद वहां के नेता और धर्म गुरु दलाई लामा भागकर भारत आ गए. उनके साथ ही तिब्ब्तियों की एक बड़ी आबादी आई, जो अब हिमाचल के धर्मशाला से लेकर देश के कई हिस्सों में बस चुकी है. यहीं रहते हुए दलाई लामा चीन के खिलाफ मोर्चाबंदी किए हुए हैं और लगातार अपने देश की चीन से आजादी की बात उठाते रहते हैं.
तिब्बतियों को अपना धार्मिक नेता (अगला दलाई लामा) चुनने के अधिकार के रास्ते साफ हो गए हैं- सांकेतिक फोटो (Pixabay)
अब तिब्बती नीति और समर्थन कानून पास कर दिया है. इससे तिब्बतियों को अपना धार्मिक नेता (अगला दलाई लामा) चुनने के अधिकार के रास्ते साफ हो गए हैं. अगर चीन इसमें अड़ंगा डालता है तो अमेरिका दूसरे देशों की रजामंदी से चीन के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकता है, या उसपर कड़ी आर्थिक पाबंदियां लगा सकता है.ये भी पढ़ें: जानिए, उन देशों के बारे में, जहां गर्भपात अब भी गैरकानूनी है
दिल्ली ने अभी तक अमेरिका कांग्रेस से पास कानून को लेकर अपनी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन पहले से ही भारत को धमकाने की कोशिश कर रहा है. दलाई लामा को शरण देने के कारण चीन भारत से तब से ही चिढ़ा हुआ है. बता दें कि भारत के दलाई लामा की मान्यताओं पर सहमति जताने पर चीन अक्सर नाराजगी जताता रहा है. इसे ही वो तिब्बत कार्ड कहता आया है और भारत को इससे दूर रहने को चेताता है.
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यहां तक कि अब वो भारत को वाजपेयी काल में हुआ समझौता भी याद दिला रहा है ताकि भारत अमेरिका को तिब्बत मामले में सपोर्ट न करे. दरअसल साल 2003 में तत्कालीन पीएम अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा माना और चीन ने सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया. ये एक तरह से करार था कि दोनों देश आपसी मामले में दखल न दें. तब चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन हुआ करते थे. इसके साथ ही भारत उत्तरी सीमा को आधिकारिक तौर पर भारत-तिब्बत सीमा कहने की बजाए, भारत-चीन सीमा कहने लगा. ये एक तरह से चीन के तिब्बत पर अधिकार को मान्यता थी.

चीन को हमेशा डर रहा कि दलाई लामा और भारत मिलकर तिब्बत में अस्थिरता ला सकते हैं- सांकेतिक फोटो (Pixabay)
चीन को हमेशा से डर रहा कि तिब्बत में सबसे अहम माने जाने वाले दलाई लामा और भारत मिलकर चीन में अस्थिरता ला सकते हैं. अब जबकि कोरोना संक्रमण के चलते चीन पहले से ही शक के घेरे में है, बाकी देश भी किसी भी वजह से उसके खिलाफ आक्रामक हो सकते हैं. खासतौर पर अगर भारत अमेरिका का समर्थन करता है, तो ये चीन के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोल सकता है.
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यही कारण है कि चीन भारत के कुछ कहने से पहले ही उसे अपने साथ संबंधों और वाजपेयी काल के दौरान हुई बातचीत याद दिला रहा है. हालांकि हाल-फिलहाल में भारत के ऐसा करने की कोई वजह नहीं दिख रही. बिगड़ते हालातों में अगर भारत तिब्बत की मदद लेता है या उसके स्वतंत्र राष्ट्र होने की बात करता है तो ये चीन के साथ साल 2003 में हुई बातचीत का उल्लंघन होगा. इससे ये भी हो सकता है कि चीन सिक्कम पर फिर से अपना हक जताने लगे. फिलहाल कोरोना से चरमराई अर्थव्यवस्था के बीच कोई भी नया विवाद देश को मुसीबत में डाल सकता है.
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वैसे चीन केवल तिब्बत मामले में ही आक्रामक नहीं, इससे पहले वो ताइवान और हांगकांग मुद्दे पर भी भारत और कई बड़े देशों को दूर रहने की नसीहत दे चुका है. मालूम हो कि हांगकांग में सुरक्षा कानून लागू करने पर चीन के खिलाफ कई यूरोपियन देश आ गए थे लेकिन चीन ने कूटनीति से सबको चुप करा दिया. अब हांगकांग में नया कानून पारित हो चुका है. इस नए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत चीन हांगकांग में सीधे दखल दे सकता है. हांगकांग में नया नेशनल सेक्युरिटी ऑफिस बनेगा, जो वहां के हालात पर नजर रखेगा. खुफिया जानकारी इकट्ठा करेगा. अगर इस कार्यालय ने किसी के खिलाफ कोई मामला दर्ज किया, तो इसकी सुनवाई चीन में भी हो सकती है.